#GYANGANGA
*************गीता ज्ञान *************
पुण्यशाली भगत आत्माओ -----
गीता अध्याय 3 के श्लोक 1,2 में अर्जुन ने पूछा है कि हे जनार्दन! यदि आप कर्मों से बुद्धि
(ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हो तो मुझे गुमराह किस लिए कर रहो हो? आप ठीक से
सलाह दें जिससे मेरा कल्याण हो। आपकी ये दोतरफा (दोगली) सी बातें मुझे
भ्रम में डाल रही हैं।
****शास्त्र विधि रहित पूजा अर्थात् मनमाना आचरण का विवरण****
गीता अध्याय 3के श्लोक 3से 8में भगवान ने कहा है कि हे निष्पाप! (अर्जुन)
इस लोक में ज्ञानी तो ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तथा योगी कर्म योग को फिर
भी ऐसा कोई नहीं है जो कर्म किए बिना बचे। फिर निष्कर्मता नहीं बन सकती और
कर्म त्यागने मात्रा से भी उद्देश्य (सिद्धि) प्राप्त नहीं हो सकता।
अध्याय 3 श्लोक 4 में निष्कर्मता का भावार्थ है कि जैसे किसी व्यक्ति ने एक
एकड़ गेहूँ की पक्की हुई फसल काटनी है तो उसे काटना प्रारम्भ करके ही फसल
काटने वाला कार्य पूरा किया जाएगा तब कार्य शेष नहीं रहेगा इस प्रकार कार्य
पूरा होने से ही निष्कर्मता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र विधि
अनुसार भक्ति कर्म प्रारम्भ करने से ही परमात्मा प्राप्ति रूपी कार्य पूरा
होगा। फिर निष्कर्मता बनेगी। कोई कार्य शेष नहीं रहेगा।
यदि भक्ति
कर्म नहीं करेगें तो यह त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा
तमगुण शिव) बलपूर्वक अन्य दुष्कर्मों में लगाएगी। चूंकि स्वभाव वश माया
(प्रकृति) से उत्पन्न तीनों गुण (रज-ब्रह्मा, सत-विष्णु, तम-शिव) जीव से
जबरदस्ती कर्म करवाते हैं। जो मूर्ख भक्तजन (साधक) कर्म इन्द्रियों को हठ
पूर्वक रोक कर एक स्थान पर भजन पर बैठते हैं तो उनका मन ज्ञान इन्द्रियों
के प्रभाव से प्रभावी रहता है। वे लोग दिखावा आडम्बर वश समाधिस्थ दिखाई
देते हैं। वे पाखण्डी हैं अर्थात् कर्म त्याग से भजन नहीं बनता। करने योग्य
कर्म करता रहे तथा ज्ञान से मन व इन्द्रियों को अच्छे कर्मों में संलग्न
रखे तथा शास्त्रों की विधि से करने योग्य कर्म (भक्ति) करना श्रेष्ठ है यदि
सांसारिक कर्म नहीं करेगा तो तेरा पेट गुजारा (परिवार पोषण) कैसे होगा?
अध्याय 3के श्लोक 9में कहा है कि निष्काम भाव से शास्त्र अनुकूल किये हुए
धार्मिक कर्म (यज्ञ) लाभदायक हैं।
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3श्लोक 6से 9तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष
आसन पर बैठ कर कान-आंखें आदि बन्द करके हठ करने की मनाही की है तथा
शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है।
प्रत्येक सद्ग्रन्थों में सांसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने
का भक्ति विधान बताया है।प्रमाण:-
पवित्र गीता अध्याय 8श्लोक 13में
कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्रा ओं
अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम स्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे
वाली परमगति को प्राप्त होता है।
फिर अध्याय 8श्लोक 7में कहा है कि हर
समय मेरा स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते
हुए अर्थात् सांसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा।
भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7श्लोक 18में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति
व्यर्थ बताया है। फिर भी ब्रह्म साधना की विधि यही है। फिर अध्याय 8श्लोक
8से 10तक विवरण
दिया है कि चाहे उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की
भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 18 लोक 62व अध्याय 15श्लोक 1से 4में
दिया है। उसका भी यही विधान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना
तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा सांसारिक कार्य
करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण
परमात्मा को ही
प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय
4श्लोक 34में दिया है। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15श्लोक 1में
है यही प्रमाण पवित्रा यजुर्वेद अध्याय 40मंत्रा 10तथा 13में दिया है।
यजुर्वेद अध्याय 40मंत्रा 10का भावार्थ:-
पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के विषय
में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में
कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में न आने वाला अर्थात्
निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो धीराणाम् अर्थात्
तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है?
वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी धीराणाम् अर्थात्
तत्वदर्शी संतों से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता।
फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40मंत्र 15 में कहा है कि मेरी
साधना ओ3म् नाम का जाप कर्म करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर
तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर, इससे मृत्यु उपरान्त
अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् परमगति को प्राप्त हो
जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है, कुछ समय तक अमर हो जाता
है। जिस कारण स्वर्ग में चला जाता है। फिर
जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
*************गीता ज्ञान *************
पुण्यशाली भगत आत्माओ -----
गीता अध्याय 3 के श्लोक 1,2 में अर्जुन ने पूछा है कि हे जनार्दन! यदि आप कर्मों से बुद्धि
(ज्ञान) को श्रेष्ठ मानते हो तो मुझे गुमराह किस लिए कर रहो हो? आप ठीक से
सलाह दें जिससे मेरा कल्याण हो। आपकी ये दोतरफा (दोगली) सी बातें मुझे
भ्रम में डाल रही हैं।
****शास्त्र विधि रहित पूजा अर्थात् मनमाना आचरण का विवरण****
गीता अध्याय 3के श्लोक 3से 8में भगवान ने कहा है कि हे निष्पाप! (अर्जुन)
इस लोक में ज्ञानी तो ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं तथा योगी कर्म योग को फिर
भी ऐसा कोई नहीं है जो कर्म किए बिना बचे। फिर निष्कर्मता नहीं बन सकती और
कर्म त्यागने मात्रा से भी उद्देश्य (सिद्धि) प्राप्त नहीं हो सकता।
अध्याय 3 श्लोक 4 में निष्कर्मता का भावार्थ है कि जैसे किसी व्यक्ति ने एक
एकड़ गेहूँ की पक्की हुई फसल काटनी है तो उसे काटना प्रारम्भ करके ही फसल
काटने वाला कार्य पूरा किया जाएगा तब कार्य शेष नहीं रहेगा इस प्रकार कार्य
पूरा होने से ही निष्कर्मता प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार शास्त्र विधि
अनुसार भक्ति कर्म प्रारम्भ करने से ही परमात्मा प्राप्ति रूपी कार्य पूरा
होगा। फिर निष्कर्मता बनेगी। कोई कार्य शेष नहीं रहेगा।
यदि भक्ति
कर्म नहीं करेगें तो यह त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा
तमगुण शिव) बलपूर्वक अन्य दुष्कर्मों में लगाएगी। चूंकि स्वभाव वश माया
(प्रकृति) से उत्पन्न तीनों गुण (रज-ब्रह्मा, सत-विष्णु, तम-शिव) जीव से
जबरदस्ती कर्म करवाते हैं। जो मूर्ख भक्तजन (साधक) कर्म इन्द्रियों को हठ
पूर्वक रोक कर एक स्थान पर भजन पर बैठते हैं तो उनका मन ज्ञान इन्द्रियों
के प्रभाव से प्रभावी रहता है। वे लोग दिखावा आडम्बर वश समाधिस्थ दिखाई
देते हैं। वे पाखण्डी हैं अर्थात् कर्म त्याग से भजन नहीं बनता। करने योग्य
कर्म करता रहे तथा ज्ञान से मन व इन्द्रियों को अच्छे कर्मों में संलग्न
रखे तथा शास्त्रों की विधि से करने योग्य कर्म (भक्ति) करना श्रेष्ठ है यदि
सांसारिक कर्म नहीं करेगा तो तेरा पेट गुजारा (परिवार पोषण) कैसे होगा?
अध्याय 3के श्लोक 9में कहा है कि निष्काम भाव से शास्त्र अनुकूल किये हुए
धार्मिक कर्म (यज्ञ) लाभदायक हैं।
विशेष:- उपरोक्त गीता अध्याय 3श्लोक 6से 9तक एक स्थान पर एकान्त में विशेष
आसन पर बैठ कर कान-आंखें आदि बन्द करके हठ करने की मनाही की है तथा
शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है।
प्रत्येक सद्ग्रन्थों में सांसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने
का भक्ति विधान बताया है।प्रमाण:-
पवित्र गीता अध्याय 8श्लोक 13में
कहा है कि मुझ ब्रह्म का उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्रा ओं
अक्षर है जो इसका जाप अन्तिम स्वांस तक कर्म करते-करते भी करता है वह मेरे
वाली परमगति को प्राप्त होता है।
फिर अध्याय 8श्लोक 7में कहा है कि हर
समय मेरा स्मरण भी कर तथा युद्ध भी कर। इस प्रकार मेरे आदेश का पालन करते
हुए अर्थात् सांसारिक कर्म करते-करते साधना करता हुआ मुझे ही प्राप्त होगा।
भले ही अपनी परमगति को गीता अध्याय 7श्लोक 18में अति अश्रेष्ठ अर्थात् अति
व्यर्थ बताया है। फिर भी ब्रह्म साधना की विधि यही है। फिर अध्याय 8श्लोक
8से 10तक विवरण
दिया है कि चाहे उस परमात्मा अर्थात् पूर्णब्रह्म की
भक्ति करो, जिसका विवरण गीता अध्याय 18 लोक 62व अध्याय 15श्लोक 1से 4में
दिया है। उसका भी यही विधान है कि जो साधक पूर्ण परमात्मा की साधना
तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करता हुआ तथा सांसारिक कार्य
करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है वह उस परम दिव्य पुरुष अर्थात् पूर्ण
परमात्मा को ही
प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत का संकेत गीता अध्याय
4श्लोक 34में दिया है। तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15श्लोक 1में
है यही प्रमाण पवित्रा यजुर्वेद अध्याय 40मंत्रा 10तथा 13में दिया है।
यजुर्वेद अध्याय 40मंत्रा 10का भावार्थ:-
पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा के विषय
में कोई तो कहता है कि वह अवतार रूप में उत्पन्न होता है अर्थात् आकार में
कहा जाता है, कोई उसे कभी अवतार रूप में आकार में न आने वाला अर्थात्
निराकार कहता है। उस पूर्ण परमात्मा का तत्वज्ञान तो धीराणाम् अर्थात्
तत्वदर्शी संत ही बताऐंगे कि वास्तव में पूर्ण परमात्मा का शरीर कैसा है?
वह कैसे प्रकट होता है? पूर्ण परमात्मा की पूरी जानकारी धीराणाम् अर्थात्
तत्वदर्शी संतों से सुनों। मैं वेद ज्ञान देने वाला ब्रह्म भी नहीं जानता।
फिर भी अपनी भक्ति विधि को बताते हुए अध्याय 40मंत्र 15 में कहा है कि मेरी
साधना ओ3म् नाम का जाप कर्म करते-करते कर, विशेष आस्था के साथ सुमरण कर
तथा मनुष्य जीवन का मुख्य कत्र्तव्य जान कर सुमरण कर, इससे मृत्यु उपरान्त
अर्थात् शरीर छूटने पर मेरे वाला अमरत्व अर्थात् परमगति को प्राप्त हो
जाएगा। जैसे सूक्ष्म शरीर में कुछ शक्ति आ जाती है, कुछ समय तक अमर हो जाता
है। जिस कारण स्वर्ग में चला जाता है। फिर
जन्म-मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
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